Saturday, October 9, 2021

लघुकथा– विचार आ अनुभूति –मैथिली अनुवाद - देवेन्द्र मिश्र

मैथिलीमा---------

लघुकथा
विचार आ अनुभूति
मैथिली अनुवाद - देवेन्द्र मिश्र 
(अध्यक्ष, मैथिली साहित्य परिषद, राजविराज )


एक समयक गप छी । एहि सृष्टिक कल्याणक सम्बन्धमे विचारि क'  दूटा शत्रुक बीच आमने-सामने  अन्तरक्रिया भेल छल ।
‘अाइँ रअाे, ताेँ त' मनुखकेँ भ्रमित करबामे माहिर छेँ । वर्तमानेकेँ उन्टा-पुन्टाक'  कतअाे जीवन चलै छै ?’
शत्रु–१ के विचार सुनिक' शत्रु–२ क अनुभूति किछु काल द्विविधामे पडि गेल । अाे शत्रु–१ क  गप सुनिक' बहुते कालधरि गुम्म रहल । किछुए कालमे अाेकरा लागल जे दिव्यज्ञान प्राप्त भ' गेल हाे । अाेकरा मनमे निश्चित भ' गेल  जे अाे अपन स्वभावेकेँ पिचि रहल हाेए  अा  तुरन्ते सतर्क भ' गेल हाेए ।
‘हमर  प्रश्ननक उत्तर नइँ दैके छाै त'  हमरा लग नतमस्तक भ' क्षमा माङ्गि लेबही त' भ' जेताै ने ! अालटाल करबाक की अावश्यकता ?’
शत्रु–१ क व्यङ्ग्यात्मक विचार अा कटु वचन सुनिक'  शत्रु–२ क अनुभूति एकरा सहि नइँ  सकल । भीतरी' मनसँ तामस उमडिक' अाएल ।
तमसेनाइ अा तामस प्रगट कएनाइ शत्रु–१ क काज छी; अपन काजे ई नइँ छी, से साेचिक'  शत्रु–२ सहजभावसँ कहलक; ‘साैरी, एखन किछु कालक लेल छूट छै, से साेचिक'   बेसी खुशी हाेएबाक नइँ छै । हमरा अा ताेरा बीच आकाश–जमीनक सम्बन्ध छै । हम जाहि ठाँ छी, अाेतए ताेहर  प्रवेश निषेध छाै । हम ताेरा लग अपन स्वभाव ल' क' अाबी, से कहिअाे सम्भवे नइँ छै ।’

शत्रु–१ जखन सोचमे डुबि रहल छल, तखने  शत्रु–२ क दाेसर स्वर सेहाे अाएल ; ‘ताेँ मनुक्खकेँ दास बनबैछेँ, अर्थात् कैद करैछेँ । हम मनुक्खकेँ सम्पूर्ण रूपसँ दासत्वसँ मुक्ति दिअाबैछी ।’
अन्ततः दुनूके अन्तरक्रियासँ मनुक्खकेँ बाहिरी जगत् शत्रु–१ द्वारा विचरण कराएल जाएत, से गप भेल । भितरी जगत  शत्रु–२ द्वारा घुमाएल जेबाक निचोड निकलल । एही गपमे अाैँठा छाप लगाक' अाेसक दुनू गाेटे अपन-अपन स्थानक लेल बिदाह भेल  । 
अाे दूटा अान केअाे नइँ छल ।शत्रु–१ क भूमिकामे मनुक्खक ‘विचार’ अा शत्रु–२ छल मनुष्यक ‘अनुभूति’ ।

२०७८–०६–१५
(मूलकथा रचनाकार -  नन्दलाल आचार्य )


नेपालीमा--------

लघुकथा– विचार र अनुभूति
–नन्दलाल आचार्य

एक पटक यस सृष्टिको कल्याणका खातिर भन्दै दुई शत्रु बीच आमनेसामने भएर अन्तरक्रिया भएको थियो ।
‘एई, तँ मान्छेलाई अलमल्याउन माहिर छस् । वर्तमानलाई ओल्टाईपल्टाई गरेर पनि जीवन चल्छ र ?’
शत्रु–१ को विचार सुनेर शत्रु–२ को अनुभूति केहीबेर अलमलमा प¥यो । उसले शत्रु–१ का कुरामा निकैबेर गम खायो । केहीबेरमै उसलाई दिव्यज्ञान प्राप्त भएझैँ लाग्यो । आफूले आफ्नै स्वभाव कुल्चेको ठहर भयो र तुरुन्तै सतर्क बन्यो ।
‘मेरो प्रश्नको जवाफ दिन नसके मसँग नै लम्पसार परेर क्षमा माग्दा भइगयो नि ! किन आलटाल गरिराख्नु प¥यो ?’
शत्रु–१ कोे व्यङ्गयात्मक विचार र कटु कुरा सुनेर शत्रु–२ को अनुभूतिलाई खपिनसक्नु भयो । भित्री मनदेखि नै रिस उम्लेर आयो ।
रिसाउनु र रिस प्रकट गर्नु शत्रु–१ को काम हो; आफ्नो हुँदै होइन भन्ने सोचेर शत्रु–२ ले सहजभावमा भन्यो; ‘सरी, अहिले केहीबेरलाई छुट छ भन्दैमा मख्ख नपर । म र तिमी बीच आकाश–जमीनको सम्बन्ध छ । म भए ठाउँमा तिम्रो प्रवेश निषेध छ । तिमीकहाँ म आफ्नो स्वभाव लिएर जाने कुरै आउन्न ।’
शत्रु–१ सोचमा डुबेकै बखत शत्रु–२ को अर्को स्वर थपिएको थियो; ‘तिमी मनुष्यलाई दास बनाउँछौ अर्थात् कैद गर्छौ । म मनुष्यलाई सम्पूर्ण रूपले दासत्वबाट मुक्ति दिलाउँछु ।’
अन्ततः दुबैको अन्तरक्रियाबाट मनुष्यलाई बाहिरी जगत् शत्रु–१ ले विचरण गराउने कुरा भयो । भित्री जगत् भने शत्रु–२ ले घुमाउने निचोड निस्कियो । यसै कुरामा ल्याप्चे लगाएर उनीहरू दुबै आआफ्नो स्थानमा रवाना भए । 
ती दुई थिए– शत्रु–१ को भूमिकामा मनुष्यको ‘विचार’ र शत्रु–२ चाहिँ मनुष्यको ‘अनुभूति’ ।

२०७८–०६–१५

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